Dr. Sangeeta Sharma kundra सेवा परमो धर्म अर्थात सेवा ही परम धर्म है (sewa parmo dharma)sewa hi param dharam hai
सेवा
"सेवा परमो धर्म" बचपन से ही यह बात सब घर परिवार में सुनते आए हैं। प्राणी मात्र का जन्म सार्थक ही शायद सेवा से होता है। सेवा जब परम धर्म है तो इसके बारे में कहने को कुछ रही नहीं जाता। अपने लिए जिए तो क्या जिए तू जी ओ दिल ज़माने के लिए। अपनी सेवा तो दुनिया का हर जीव करता ही है और वह सहज ही उपलब्ध है। मानव जीवन ही एक ऐसा जीवन है जिसमें वह अपने कार्यों द्वारा पर सेवा से अपना उद्धार कर सकता है। इस धरती पर आज तक मानव चाहे किसी भी धर्म का व्याख्यान करता रहा हो पर जब आज के समय आई महामारी ने लोगों को अपने से अवगत कराया तो सेवा धर्म के अतिरिक्त कोई धर्म भी काम नहीं आया। एक सेवा ही थी जिसने प्राणी को धरती पर जीवित रहने का सौभाग्य दिया। जिस व्यक्ति ने इस महामारी के दौर में सेवा धर्म अपनाया, वह मानव से महामानव हो गया।
यूंँ तो सेवा किसी भी प्रकार से की जा सकती है। इसमें जरूरी नहीं कि आप धनवान हो। सेवा के कई रूप सामने आते हैं इसका स्वरूप हम घर से ही देखना शुरू कर देते हैं। मांँ की निस्वार्थ सेवा के फल स्वरुप बच्चा कैसे एक छोटे से जीव से एक पूर्ण मानव का रूप लेता है। बच्चा मांँ के इस भाव को अगर खुद में समा ले तो उसमें सेवा धर्म अपने आप ही पनप जाता है। जिसके बाद वह अपने इस ऋण को उतारते हुए समाज को अपनी सेवाओं द्वारा खुद को उऋण कर सकता है।
सेवा करते हुए हमें यह अवश्य ध्यान देना चाहिए कि सेवा सुपात्र को ही मिले। जिस प्रकार गीता में कृष्ण जी ने दान के महत्व को बताते हुए कहा है कि दान सुपात्र को ही देना चाहिए। इस तरह सेवाएं भी सुपात्र तक ही पहुंचनी चाहिएं। कहीं ऐसा न हो कि हम अपनी तरफ से तो सेवा कर रहे हो पर नतीजे में वह किसी को नुकसान पहुंचा रही हों। इसी का एक उदाहरण रामायण में भी है जब रावण सीता के समक्ष साधु बनकर जाता है और सीता सेवा भाव में उसकी चाल का शिकार हो बैठती है।
अतः सेवा देने से पहले सेवा करने वाले की पात्रता का अवश्य ज्ञान कर लेना चाहिए कि वह कोई अपराधी तो नहीं। आपकी सेवा से वह कुछ अनिष्ट तो नहीं करेगा। आपकी सेवा उस पात्र को लाभ पहुंँचा कर किसी का अनिष्ट तो नहीं करेगी। हम यह सोचकर कदापि अपना दामन नहीं बचा सकते, कि हम तो सेवा कर रहे हैं बाकी आगे वाला जाने कि उसके मन में क्या है। कहने को जो लोग गलत नीतियों के लोगों को धन आदि से सेवाएं प्रदान करते हैं वह भी सेवा ही है पर उसका नतीजा जब आम जन को भुगतना पड़ता है तो वह सेवा नहीं रह जाती अपितु गलत कार्य बन जाता है।
अंततः सेवा करें तो अवश्य ध्यान रखें की सेवा सुपात्र की ही की जानी चाहिए।
धन्यवाद
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